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|संग्रह=गुले-नग़मा / फ़िराक़ गोरखपुरी
}}
[[Category:गज़ल]]{{KKCatGhazal}}
<poem>
आँखों में जो बात हो गयी है
एक शरहे-हयात <ref>जीवन की व्याख्या</ref> हो गयी है।
जब दिल की वफ़ात हो गयी है
जिस शै पर नज़र पड़ी है तेरी
तस्वीरे-हयात <ref>जीवन का चित्र</ref> हो गयी है।
दिल में तुझ से थी जो शिकायत
अब ग़म के निकात <ref>मर्म</ref> हो गयी है।
इक़रारे-गुनाहे-इश्क़ <ref>इश्क़ के गुनाह का इक़रार</ref> सुन लो
मुझसे इस बात हो गयी है।
शामे-जुल्मात हो गयी है।
इस दौर में जिन्दगी बसर <ref>मानव</ref> की
बीमार की रात हो गयी है।
मिटने लगीं ज़िन्दगी की कद्रें
जब ग़म से नजात <ref>मुक्ति</ref> हो गयी है।
वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाय
पहले वो निगाह इक किरन थी
अब बर्क़-सिफ़ात <ref>बिजली की विशेषता रखने वाली</ref> हो गयी है।
जिस चीज को छू दिया है तूने
एक बर्गे-नबात <ref>हरी डाली</ref> हो गयी है।
इक्का-दुक्का सदाये-जंजीर
जिन्दाँ <ref>कारागार</ref> में रात हो गयी है।
एक-एक सिफ़त ’फ़िराक़’ उसकी
देखा है तो ज़ात हो गयी है।
शरहे-हयात = जीवन की व्याख्या, तस्वीरे-हयात = जीवन का चित्र, निकात = मर्म, इक़रारे-गुनाहे-इश्क़ = इश्क़ के गुनाह का इक़रार, बसर = मानव, कद्रें = मूल्यों, नजात = मुक्ति, बर्क़-सिफ़ात = बिजली की विशेषता रखने वाली, बर्गे-नबात = हरी डाली, जिन्दाँ = कारागार। {{KKMeaning}}
</poem>
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