भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|संग्रह=गुले-नग़मा / फ़िराक़ गोरखपुरी
}}
<poem>
ये सुर्मई सुरमई फ़ज़ाओं की कुछ कुनमनाहटें
मिलती हैं मुझको पिछले पहर तेरी आहटें।
इस कायनाते - ग़म की फ़सुर्दा फ़ज़ाओं में
बिखरा गये है आ के वो कुछ मुस्कुराहटें।
ऐ जिस्मे - नाज़नीने - निगारे - नज़रनवाज़शुब्हे - शबे - विसाल तेरी मलगजाहटें।
पड़ती है आसमाने - मुहब्बत प ' छूट सीबल -बे -जबीने-नाज़ तेरी जगमगाहटें।
चलती जब नसीमे-ख़याले-ख़रामे-नाज़
सुनता हूँ दामनों की तेरे सरसराहटें।
चश्मे - सियह तबस्सुमे-पिनहाँ लिये हुये
पौ फूटने से पहले उफ़ुक़ की उदाहटें।
</poem>