भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
बेगानेपन को ही
छेड़ दिया
::घनी उमस में::कभी न उसने::पंखा हाँका है::लसिया गए भात को::देसी घी से छौंका है
दूध मुँहे पाड़े को
माँ से दूर खदेड़ दिया
::उसने::नागफनी के जंगल में::कीकर बोया::ख़ुशबू नहीं, चुभन काँटों की::मंज़िल हो गोया
उभर रहे
स्वेटर का पूरा ऊन
उधेड़ दिया
::हरियाली केलिए::पेड़ के::हरे तने काटे::बड़े प्यार से पास बुलाकर::जड़े कई चाँटे
उपजाऊ धरती के
बँटवारे का
मेड़ दिया
</poem>