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{{KKRachna
|रचनाकार=जोश मलीहाबादी
}}{{KKCatGhazal}}<poem>[[Category:ग़ज़ल]]
इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत <ref>व्यापार</ref> है
जो डर के नार-ए-दोज़ख़ <ref>जहन्नुम की आग</ref> से ख़ुदा का नाम लेते हैं
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है
मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की
वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत <ref>समर्पण</ref> है
कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्द'अ मुद्दा<ref>किसी के लक्ष्य की तरफ ध्यान न दे</ref> हो जा ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा <ref>खुदा का भक्त</ref> हो जा
उठा लेती हैं लहरें तहनशीं <ref>पानी में डूबता</ref> होता है जब कोई उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना <ref>मौत के गहरे समुन्दर में डूब</ref> हो जा </poem>{{KKMeaning}}
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