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Kavita Kosh से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं <br><br>
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ुक नाज़ उसकी <br>
सो हम भी उसकी गली से गुज़र कर देखते हैं <br><br>
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है <br>
सो उसको सुरमाफ़रोश आँख आह भर के देखते हैं <br><br>
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं <br>
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं <br><br>
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसका उसकी <br>जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं <br><br>
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में <br>
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं <br><br>
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्कान इम्काँ में <br>पलंग ज़ावे ज़ाविए उसकी कमर को के देखते हैं <br><br>
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं <br>
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं <br><br>
वो सर्वसर-क़द ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं <br>
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं <br><br>
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का <br>
सो रहरवाँरहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं <br><br>
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त <br>