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दिनांक / सत्यपाल सहगल

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|रचनाकार=सत्यपाल सहगल
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}}
<poem>आज इतनी हलचलें हैं कि सिर्फ हलचलें हैं
उदासी का चेहरा सिर्फ खुद हो नज़र आता है
सभी कोनों में सिर्फ रोशनी और आवाज़ें हैं
शहर से बाहर जाने का हर रास्ता शहर के बीच से होकर जाता है
अकेले होने में कोई आश्चर्य नहीं है यही भय है
इस रहस्य को कोई नहीं जानता कि आप लोगों के बीच नहीं है
पास से चीज़ें गुज़रेंगी ओर हर चीज़ के गंतव्य होंगे
यात्राएँ होंगी पर विषय नहीं
यह चिंता का विषय होगा पर चिन्ता नहीं होगी
अंत में दिन ढल जाएगा
और यही जवाब होगा इस दिन का
अंत में ख़ामोशी होगी जो दूसरे पैदा करेंगे
अंत में दिन का अंत होगा,जो पहले ही सबमें बँट जाएगा
फिर कोई नहीं रह जाएगा सिवाय आपके जो रात को देखेगा
सिवाय कोई नही होगा के जो आपकी देखेगी
अब जो कुछ भी होगा सुबह में होगा
इस वक्त केवल यही एक सच होगा</poem>
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