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शहर-2 / सत्यपाल सहगल

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|रचनाकार=सत्यपाल सहगल
|संग्रह=कई चीज़ें / सत्यपाल सहगल
}}
<poem>छुप कर शराब पीता युवा मुझे अच्छा लगा
मुझे अच्छा लगा उसका नाराज़ होना मेरे मना करने पर
मुझे अच्छा लगा उसका मेरे पैसों में से चुपके शराब लाना
मुझे अच्छा लगा उसकी आत्मा को चीरता हुआ दुख
उस शहर में जिसमें मैं रहता था मुझे अच्छा लगा
एक युवा का फड़फड़ाता दुःख
वह शहर मुझे अपना लगा कुछ क्षण
मुझे उसका लुढ़क जाना अच्छा लगा
मुझे उसका ख़्याल आना अक्छा लगा
वह शहर उस वक्त मुझे कुछ अच्छा लगा
वरना उस श्हर में क्या था आवाज़ों के अलावा
या कुछ लोगों के अनुसार खामोशी के अलावा
मुझे उसका आटा गूँथना अच्छा लगा
मुझे अच्छी लगी उसकी रोटियाँ
मुझे उसका बड़बड़ाना अच्छा लगा
मुझे उसका हड़बड़ाना अच्छा लगा
मुझे लगा हाँ यह भी एक शहर हुआ
मुझे उस वक्त उस शहर में अपना होना लगा
उस वक्त उस शहर में मुझे मरने से डर नहीं लगा
उस शहर में मैं जाने को नहीं हुआ उस वक्त
उस वक्त मेरी इच्छा नहीं हुई कि मैं पूछूँ वक्त
वह शहर मुझे कुछ ठीक ठाक लगा उस वक्त
इस तरह से मैं हुआ उस वक्त उस शहर का</poem>
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