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हुस्न इक बे-बेंधा हुआ मोती या इक बे-सूँघा हुआ फूल
होश फ़रिस्तों के भी उड़ा दें तेरी ये दोशीज़ा२ अदायें।
 
बातें उसकी याद आती हैं लेकिन हम पर ये नहीं खुलता
किन बातों पर अश्क़ बहायें किन बातों से जी बहलायें।
 
साक़ी अपना ग़मख़ना भी, मयख़ाना बन जाता है
मस्ते-मये-ग़म होकर जब हम, आँखों से सागर छलकायें।
 
अहले-मसाफ़त३ एक रात का ये भी साथ ग़नीमत है
कूच करो तो सदा दे देना, हम न कहीं सोते रह जायें।
 
होश में कैसे रह सकता हूँ आख़िर शायरे-फ़ितरत४ हूँ
सुब्‍ह के सतरंगे झुर्मुट से जब वो उँगलियाँ मुझे बुलायें।
 
एक ग़ज़ाले-रमख़ुर्दा का मुँह फेरे ऐसे में गुज़रना
जब महकी हुई ठंडी हवाएँ दिन डूबे आँखें झपकायें।
 
देंगे सुबूते-आलीज़र्फ़ी हम मयकश सरे-मयख़ाना
साक़ी-ए-चश्में-सियह की बातें, ज़गर भी हो तो हम पी जायें।
 
मौजूँ करके सस्ते जज़्बे, मण्डी-मण्डी बेंच रहे हैं
हम भी ख़रीदें जो ये सुख़नवर इक दिन ऐसी ग़ज़ल कहलायें।
 
राह चली है जोगन होकर, बाल सँवारे, लट छिटकाये
छिपे ’फ़िराक़’ गगन पर तारे, दीप बुझे हम भी सो जायें।
 
शब्दार्थ
१- सृष्टि, २- कुँवारी, ३- यात्रा-साथी, ४- प्रकृति-कवि।
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