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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>
'''एक'''
नहीं, यह वह आदमी नहीं हो सकता
वह हो ही नहीं सकता।
वह तो दहाड़ता था शेर की मानिंद
चीते सा था फुर्तीला
समझता था फायल की चाल
बाहर से
भाँप जाता था भीतर का मजमून
कलेजा निकाल
रख देता था फायल का मेज़ पर
सिलवर फिश था वह
भीतर घुसा हुआ
खाता था फायलें।
चलता था जब सीधा
तेज़ चाल से
दरबान अदब से खोलते थे द्वार
घुसता चला जाता था वह
गहरी से गहरी माँद में
गुप्त से गुप्त तिलिस्म में
बात बड़ी से बड़ी
बेझिझक कर लेता था उनसे
घबराते थे जिनकी हुँकार से
आला से आला अफसर।
जाते थे छोटे मोटे अफसर
उसका मूड पी.ए. कर देता अनदेखा
फायलों को कुरेदता हुआ
पलटता काग़ज़ विचारशील मुद्रा में
कभी बैठा हुआ भी लगता
नहीं बैठा है
कभी नहीं बैठा हुआ भी लगता ह
बैठा है
खड़ा रहता आने वाला सहमा सा
सामने बिछी कुर्सियाँ निहारता
देर बाद वह देखता ऊपर
कहता आँखों से क्या बात है!
एपायंटमैंट ली है!
कभी भोहैं सिकोड़ता
कभी मुस्कराता
कभी गुर्राता
कुछ कहता
उस पर सभी करते हाँ,हाँ।
सचमुच अघोरी था वह
जो बन जाता कभी आदमी
कभी शेर!।
'''दो'''
नहीं यह वह आदमी नहीं हो सकता
वह हो ही नहीं सकता
जो बैठा है
चुपके से कोने में दुबका
नहीं यह वह आदमी नहीं हो सकता ।
है अब इसके पास अकेला चपरासी
जो सुनता है घण्टी तीन बार बजने पर
गाड़ी नहीं है उसके पास
डाँटती है घर में मैडम
जाता है चोरी से सचिवालय से मब्ज़ी मण्डी।
बतियाते हैं बाहर बैठे बीड़ी पीते चपरासी
छीन लिए इससे महत्वपूर्ण विभाग
आज लगाया है खुड्डा लैण
राजस्व विभाग में
जहाँ फील्ड में पटवारी ही
चर जाते हैं सारी हरी घास
वह अब केवल साईन करता है
है एक अफसर नीचे जो प्रस्ताव बनाता है
है एक ऊपर जो ओके करता है
बार बार जाता है छुट्टी
साथी अफसरों ने कर ली है कुट्टी।
'''तीन'''
अजीब होते हैं सत्ता के गलियारे भी
जहाँ ग़ेट पर खड़े दरबान
झट पहचान लेते हैं आदमी को
धीमी चाल से ।
जो सुस्त कदमों से इधर-उधर झाँकता पकड़ा गया
झिझक गया
जो निकल गया तन कर
उसकी पीठ को करते हैं सलाम।
घूमती कुर्सियाँ करती हैं राज
सत्ता के गलियारे में
यहाँ आदमी नहीं
सिर्फ कुर्सियाँ बोलती हैं
वही वही करती हैं
भाषा है एक ही कुर्सियों के पास।
'''चार'''
यशोगान करते गंधर्व
खड़े रहते हैं सत्ता के गलियारे में
हाथ जोड़े
यस सर यस सर करते
कब कील से गड़ जाते हैं सिंहासनों में
पता नहीं चलता।
बनते हैं ज़ुबान सत्ता की
जो वे कहें वही सत्ता कहती है
जो न करें नहीं करती सत्ता
सिंहासन उख़ड़ता है तो
नए सिंहासन में गड़ना भी आता है इन्हें
अब कील बिना न सिंहासन टिकता है
न सिंहासन बिना कील ।
यशोगान करते गंधर्व
पहले भी खड़े रहते थे देव दरबार में
आज भी खड़े रहते हैं
बदलता है कभी कुर्सी पर बैठा चेहरा
चारों ओर वही वही लोग रहते हैं।
'''पाँच'''
कभी सुनसान नहीं होते सत्ता के गलियारे
चहल-पहल ही है इनकी शान
इनका सुनसान होना सत्ता का मरण है
सत्ता बनती है
इनकी भीड़ से
इनके बिखरने से
बिखरती है सत्ता
महकने से महकती है
खिलती है खिलने से
सुनसान नहीं रहना चाहिए सत्ता का गलियारा
इसलिए बार बार पड़ती है वोट
जनता पर पड़ती है चोट
गलियारा हँसता है
रोती है जनता।
'''छह'''
दरुस्त हैं जिनके हाज़में
भूखबड़ी है
सत्ता के गलियारे में
सुस्त पड़े हैं
ज़रूर खाया है आज
टूरिज़्म का भोज
खूब चबाई है मुर्गे की टाँग
सत्ता के गलियारे में अलसाये से पड़े रहना
या मंडराना कुर्सियों के इर्द गिर्द
हो गई है जिनकी आदत
बनते हैं बिचौलिये
करते हैं जयजयकार
सताती है इन्हें हर पिछली सरकार।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>
'''एक'''
नहीं, यह वह आदमी नहीं हो सकता
वह हो ही नहीं सकता।
वह तो दहाड़ता था शेर की मानिंद
चीते सा था फुर्तीला
समझता था फायल की चाल
बाहर से
भाँप जाता था भीतर का मजमून
कलेजा निकाल
रख देता था फायल का मेज़ पर
सिलवर फिश था वह
भीतर घुसा हुआ
खाता था फायलें।
चलता था जब सीधा
तेज़ चाल से
दरबान अदब से खोलते थे द्वार
घुसता चला जाता था वह
गहरी से गहरी माँद में
गुप्त से गुप्त तिलिस्म में
बात बड़ी से बड़ी
बेझिझक कर लेता था उनसे
घबराते थे जिनकी हुँकार से
आला से आला अफसर।
जाते थे छोटे मोटे अफसर
उसका मूड पी.ए. कर देता अनदेखा
फायलों को कुरेदता हुआ
पलटता काग़ज़ विचारशील मुद्रा में
कभी बैठा हुआ भी लगता
नहीं बैठा है
कभी नहीं बैठा हुआ भी लगता ह
बैठा है
खड़ा रहता आने वाला सहमा सा
सामने बिछी कुर्सियाँ निहारता
देर बाद वह देखता ऊपर
कहता आँखों से क्या बात है!
एपायंटमैंट ली है!
कभी भोहैं सिकोड़ता
कभी मुस्कराता
कभी गुर्राता
कुछ कहता
उस पर सभी करते हाँ,हाँ।
सचमुच अघोरी था वह
जो बन जाता कभी आदमी
कभी शेर!।
'''दो'''
नहीं यह वह आदमी नहीं हो सकता
वह हो ही नहीं सकता
जो बैठा है
चुपके से कोने में दुबका
नहीं यह वह आदमी नहीं हो सकता ।
है अब इसके पास अकेला चपरासी
जो सुनता है घण्टी तीन बार बजने पर
गाड़ी नहीं है उसके पास
डाँटती है घर में मैडम
जाता है चोरी से सचिवालय से मब्ज़ी मण्डी।
बतियाते हैं बाहर बैठे बीड़ी पीते चपरासी
छीन लिए इससे महत्वपूर्ण विभाग
आज लगाया है खुड्डा लैण
राजस्व विभाग में
जहाँ फील्ड में पटवारी ही
चर जाते हैं सारी हरी घास
वह अब केवल साईन करता है
है एक अफसर नीचे जो प्रस्ताव बनाता है
है एक ऊपर जो ओके करता है
बार बार जाता है छुट्टी
साथी अफसरों ने कर ली है कुट्टी।
'''तीन'''
अजीब होते हैं सत्ता के गलियारे भी
जहाँ ग़ेट पर खड़े दरबान
झट पहचान लेते हैं आदमी को
धीमी चाल से ।
जो सुस्त कदमों से इधर-उधर झाँकता पकड़ा गया
झिझक गया
जो निकल गया तन कर
उसकी पीठ को करते हैं सलाम।
घूमती कुर्सियाँ करती हैं राज
सत्ता के गलियारे में
यहाँ आदमी नहीं
सिर्फ कुर्सियाँ बोलती हैं
वही वही करती हैं
भाषा है एक ही कुर्सियों के पास।
'''चार'''
यशोगान करते गंधर्व
खड़े रहते हैं सत्ता के गलियारे में
हाथ जोड़े
यस सर यस सर करते
कब कील से गड़ जाते हैं सिंहासनों में
पता नहीं चलता।
बनते हैं ज़ुबान सत्ता की
जो वे कहें वही सत्ता कहती है
जो न करें नहीं करती सत्ता
सिंहासन उख़ड़ता है तो
नए सिंहासन में गड़ना भी आता है इन्हें
अब कील बिना न सिंहासन टिकता है
न सिंहासन बिना कील ।
यशोगान करते गंधर्व
पहले भी खड़े रहते थे देव दरबार में
आज भी खड़े रहते हैं
बदलता है कभी कुर्सी पर बैठा चेहरा
चारों ओर वही वही लोग रहते हैं।
'''पाँच'''
कभी सुनसान नहीं होते सत्ता के गलियारे
चहल-पहल ही है इनकी शान
इनका सुनसान होना सत्ता का मरण है
सत्ता बनती है
इनकी भीड़ से
इनके बिखरने से
बिखरती है सत्ता
महकने से महकती है
खिलती है खिलने से
सुनसान नहीं रहना चाहिए सत्ता का गलियारा
इसलिए बार बार पड़ती है वोट
जनता पर पड़ती है चोट
गलियारा हँसता है
रोती है जनता।
'''छह'''
दरुस्त हैं जिनके हाज़में
भूखबड़ी है
सत्ता के गलियारे में
सुस्त पड़े हैं
ज़रूर खाया है आज
टूरिज़्म का भोज
खूब चबाई है मुर्गे की टाँग
सत्ता के गलियारे में अलसाये से पड़े रहना
या मंडराना कुर्सियों के इर्द गिर्द
हो गई है जिनकी आदत
बनते हैं बिचौलिये
करते हैं जयजयकार
सताती है इन्हें हर पिछली सरकार।
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