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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन
वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>वह कटे नाक वाली औरत
उसके दिमाग में भी था फितूर
जो बैठ गई सुस्ताने झरने के नीचे
झरना,जो कभी झरना था
लोग पीते थे पानी
अंजुलियाँ भर भर
अब पूरी पहाड़ी का गन्दा नाला है
म्युनिसिपलिटी ने भी झरने के ठीक ऊपर
रख दिया है गन्दगी का टब
समाती है जिसमें आसपास की सारी गन्दगी
शायद तभी कटा है मूर्ति का नाक
मूर्ति जब बनी थी औरत
सुन्दर सलोनी थी
मूर्तिकार भला क्यों काटता नाक
किया उल्टा ही सक्सेना ने जीवन में
(जी हाँ सक्सेना ही नाम है मूर्तिकार का)
राम ने तो शिला को बनाया अहिल्या
सक्सेना ने शिला को अहिल्या बनाया
मूर्ति बनाना राम के विरुद्ध चलना है
तभी तो कटा औरत का नाक ।

राजा लोग देते थे ऐसी सज़ा
या कोई मर्दानगी दिखाने के मद में
करता था ऐसा करतब
जैसा किया था फत्तू ने
कहते थे रात तो मामूली थी
फत्तू के दिमाग़ में ही फितूर भरा था
छल्लियाँ गोड़ रहे थे दोनों जीव
जब घरवाली ने कुछ कहा
फत्तू पसीने से तर-ब-तर भड़क उठा
काट दूँगा तेरा नाक जो ज्यादा बोली
औरत भला बोलने से क्यों माने
वह बोली
बस कुदाल से काट दिया नाक
क्या यह वही औरत तो नहीं.....!
नाक लगाने वाला भी तो होगा
कोई कारीगर
कोई तो साफ करेगा झरना
क्या होगा ऐसा भी।



</poem>
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