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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
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}}
<poem>कब तक बहेंगे झरने
नदी भी तो रुकेगी कभी
झीलें समाएंगी रसातल में
हवा भी तो खतम होगी कभी।


कभी तो होगा
कि झूठ भी नहीं बचेगा
खतम हो जाएँगे फरेब के तरीके
अघमरा छोड़ना या
मारकर फैंकना छाया में
कहलाएगा पुण्य।

कहते आए हैं बुजुर्ग
होगा खात्मा
बढ़ गया है पृथ्वी पर
आदमी का भार

रुकेंगी हवाएं
नदियाँ रुकेंगी बनेंगी समुद्र
हिलेंगे पर्वत
उठेंगे अपनी धूल झाड़
उठकर चलेंगे
और बैठ जाएँगे किसी अनजान जगह।

तब फूटेंगे नए झरने
उन अनछुई जगहों में
बहेंगी नदियाँ किसी और दिशा में
बनेंगे स्वर्ग गुप्त कन्द्राओं में।
आदमी नहीं मिलेगा।
आदमी होगा आवाज़ की दूरी पर
जब कोई जोर से देगा आवाज़
शायद कहीं दूर
दूसरा आदमी सुनेगा

तब बहुत प्यारा लगेगा
आदमी को आवाज़ पर आदमी।
</poem>
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