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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>पर्दे से निकल आता है सारा दृष्य
साक्षात घूमते हैं पात्र
टूट कर खुलता है गाँव का द्वार
लगी में और लगने की स्थिति में

पर्दे में मौन खड़े
आम,अमरूद,जामुन के पेड़
पशु और पक्षी
एक एक बाहर आकर मचाते हैं उछल कूद
पूँछ खड़ी कर रम्भाते हैं
चहचहाते हैं
पिंजरे से छूटे पँछी की तरह
जल्दी में चरते हैं समय की घास
इन दृष्यों को
मन के पर्दे से बाहर
बार बार चलाना चाहता हूँ
पचास से पहले।

वक्त् के मौसम ने छीन लिया है
गाँव का बसंत
पतझड़ से पहले
जाना चाहता हूँ एक महीना छुट्टी
मिलना चाहता हूँ बचपन के साथी
भागना चाहता हूँ पुराने रास्तों पर
दौड़ कर पकड़ना चाहता हूँ बीता समय
मन कहता है
होगा सब वैसा का वैसा
वहीं का वहीं
बेशक कट जाते हैं पेड़
गुम हो जाती हैं चारागाहें
बिक जाते हैं पशु
जाना चाहता हूँ तब भी छुट्टी
वापसी पर कहूँगा बच्चों से
लिखो एक प्रस्ताव ग्राम्य जीवन पर।

भोग लेना चाहता हूँ
संसार के सभी छोटे-छोटे सुख
बड़े-बड़े दुख
पचास से पहले।

पचास से पहले
लिखना चाहता हूँ एक कालजयी कहानी
बेहतरीन कविता
लेना चाहता हूँ एक बार भाग
युवा लेखन प्रतियोगिता में
जहाँ पुरस्कृत हो पूछा जाअए सवाल
"आपको कैसा लग रहा है!"

कविता की रायल्टी से
दिखाना चाहता हूँ परिवार को
मैदान शहर और समुद्र
लेना चाहता हूँ विज्ञापन वाला प्लैट
सीलन भरे कमरों को छोड़।

लाँघना चाहता हूँ बर्फ भरा जोत
जाना चाहता हूँ एक बार
उस अंतिम गाँव
जहाँ नहीं पहुँचा कोई
जाना चाहता हूँ बड़ा भंगाल
डोडरा क्वार।


पढ़ना चाहता हूँ तीस बरस पुराना ख़त
लिखना चाहता हूँ ऐसा एक और
कहना चाहता हूँ अनकही
बरसों पुरानी छिपी बात
कि वह
तुम हो! तुम हो! तुम हो!

देना चाहता हूँ मोटी गाली
उन आकाओं को
जो दिखते हैं बाहर,भीतर नहीं हैं
दिखते हैं भीतर वह भी नहीं हैं
देना चाहता हूँ उनके मुँह पर
बड़ी से बड़ी गाली
पचास से पहले।

दोस्तो
'बूझो तो जाने' की तरह
तुम दोस्त रहे या दुश्मन
यह भी तो जानना चाहता हूँ
पचास से पहले।

बहुत ज़रूरी है पचास से पहले
यह सब जानना
क्यों नहीं होती चिड़िया बूढ़ी
क्यों नहीं मरते कौवे

क्यों सहते रहते हैं पहाड़
पेड़ क्यों नहीं बोलते
क्यों चढते जाते दिल के मरीज़ सीढ़ियाँ
पहलवान क्यों होते इतने कमज़ोर
बेहतर है होना लाजवंती या बिछुबूटी
बेहतर है चुप रहना या अधिक बोलना
बेहतर है देखना या न देखना
बेहतर है डूब जाना या किनारे रहना
अंत तक क्यों बनी रहती है आस
क्यों नहीं मिटता विश्वास
क्यों कहा जाता है ग़लत को सही
या सही को ग़लत
क्यों नहीं निकलती बाहर
भीतर की बात
क्यों रहते हैं जानते हुए अनजान
क्यों नहीं हो पाती अपने पराये की पहचान
क्यों है नीला आसमान
पानी का क्यों नहीं है रंग आकार!

हाँ
जानना है ज़रूरी यह सब
पचास के बाद लोग पूछते हैं सवाल
सवाल तब पूछे जाते हैं
जब चुक जाती हैं क्षमताएँ
हो जाती हैं इन्द्रियाँ शिथिल
स्मरण शक्ति दे जाती है जवाब
चेतना हो जाती है कुंद
तब कहे जाते हैं अनुभव से लैस
और बुद्धिमान
सवाल तब पूछे जाते हैं
जब भूल जाते हैं जवाब।

</poem>
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