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|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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तमाम कैफ़ ख़मोशी तमाम नग़्म-ए-साज़
नवा-ए-राज़ है ऐ दोस्त या तेरी आवाज़

मेरी ग़ज़ल में मिलेगा तुझे वो आलमे-राज़
जहां हैं एक अज़ल से हक़ीक़त और मजाज़

वो ऐन महशरे-नज्‍़जारा हो कि ख़लवते-राज़<sup>1</sup>
कहीं भी बन्द- नहीं है निगाहे-शाहिदबाज़<sup>2</sup>

हवाएं नींद के खेतों से जैसे आती हों
यहां से दूर नहीं है बहुत वो मक़तले-नाज़

ये जंग क्या है लहू थूकता है नज़्मे-कुहन
शिगू़फ़े और खिलायेगा वक्‍़ते शोबदाबाज़<sup>3</sup>

मशीअ़तों को बदलते हैं ज़ोरे-बाजू़ से
'हरीफ़े-मतलबे-मुश्किल नहीं फ़सूने-नेयाज़<sup>4</sup>

इशारे हैं ये बशर की उलूहियत की तरफ़
लवें-सीं दे उठी अकसर मेरी जबीने-नेयाज़

भरम तो क़ुर्बते-जानाँ का रह गया क़ाइम
ले आड़े आ ही गया चर्खे़-तफ़र्का़-परदाज़<sup>5</sup>

निगाहे-चश्मे-सियह कर रहा है शरहे-गुनाह
न छेड़ ऐसे में बहसे-जवाज़ो-गै़रे-जवाज़<sup>6</sup>

ये मौजे-नकहते-जाँ-बख्‍़श यूँ ही उठती है
बहारे-गेसु-ए-शबरंग तेरी उम्र दराज़

यॅ है मेरी नयी आवाज़ जिसको सुनके हरेक
ये बोल उठे कि है ये तो सुनी हुई आवाज़

हरीफ़े-जश्ने-चिरागाँ है नग़्म-ए-ग़मे-दोस्त
कि थरथराये हुए देख उठे वो शोला-ए-साज़

‍फ़ि‍राक़ मंजि़ले-जानाँ वो दे रही है झलक
बढ़ो कि आ ही गया वो मुक़ामे-दूरो-दराज़

1- गुप्त एकांत। 2- सौन्दर्य के प्रति आसक्त आँखें। 3- बाज़ीगर समय। 4- जादुई अदा। 5- वैमनस्य पैदा करने वाला आकाश।
6- उचित-अनुचित का तर्क।
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