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|संग्रह=दूब-धान / अनामिका
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लिखने की मेज़ वही है,<br>वही आसन,<br>पांडुलिपि वही, वही बासन<br>जिसमें मैं रखती थी खील-बताशा<br>दीया-बत्ती की वेला हर शाम!<br>कभी-कभी बेला और चंपा भी<br>रख आती थी जाकर चुपचाप<br>खील-बताशा-पानी-दीया के साथ!<br><br>
पूरे इक्कीस बरस बस यही जीवन-क्रम-<br>कुछ देर इन्हें देखती काम में लीन,<br>जैसे कि देखते हैं सुंदर मूरत शिवजी की...<br>पत्थर की मूरत ही बने रहे ये पूरे इक्कीस साल!<br>फिर एक शाम एक आंधी-सी आई,<br><br>
बिखरने लगे ग्रंध के पन्ने,<br>टूटी तंद्रा तो मुझे देखा<br>पन्नों के पीछे यों भागते हुए जैसे हिरनों के,<br><br>
चौंके: ‘हे देवि,<br>परिचय तो दें,<br>आप कौन?’<br><br>
मुझको हँसी आ गयी-<br>‘लाए थे जब ब्याहकर तो छोटी थी न,<br>फिर आप लिखने में ऐसे लगे,<br>दुनिया की सुध बिसर गई, लगता है जैसे भूल ही गए-<br><br>
वेदांत के भाष्य के ही समानांतर<br>इस घर में बढ़ी जा रही है<br>पत्ती-पत्ती<br>आपकी भार्या भी!<br>तो क्या मैं इतनी बड़ी हो गई<br>कि पहचान में ही नहीं आती?’<br><br>पानी-पानी होकरइस बात परपानी में हीबहा आएआप तोअपनी वह पांडुलिपि,
टप-टप-टप-टप
ये लो,<br>रोते हैं क्या ज्ञानी-ध्यानी यों?<br>क्यों रो रहे हैं जी...<br>
चुप-चुप..?