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|संग्रह = आँच / सुरेश चन्द्र शौक़
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जी करता है जंगल के इक गोशे <ref>टुकड़े</ref>को आबाद करें
बस इतना है कि ये दिल बेक़रार रहता है
 
ज़ीस्त=ज़िन्दगी; तल्लवुन—मिज़ाजियाँ=बात से फिर जाना
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हर तरफ़ हैं ख़ैमाज़न<ref>डेरा डाले हुए</ref> पत्थरों के सौदागर
दिल का आइना ले कर जाओगे किधर यारो
~~
क्या 'शौक़' तमन्ना हो मुझे ख़ुल्दे —बरीं<ref>स्वर्ग</ref> की
शिमला ही मिरा मेरे लिए ख़ुल्दे बरीं है.