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{{KKRachna
|रचनाकार=अमित कल्ला
}}

<poem>
बूढे पंखों का
सहारा ले
रंग
छिपे पहाडो तक
जा पहुचते

आप ही उत्त्पन
दिलासाओं के संग
सही - सही के
मायनों की दहलीजें
पार कर जाते हैं

हौले से ,
दौड़ते पानी की
रफ्तार माँप
काँच सी पोशाक
भिगो लेते

रंग
मांगे वाक्यों के
प्रतिबिम्बों में समाये
हाशियों को बिखेर ,
धकेलकर क्षितिज की देह

गहरे कोहरे को
मथने
कहीं और
निकल पड़ते ।

कुछ आहट
जरुर लगती है ।
</poem>