भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रमता दृग / अमित कल्ला

1,114 bytes added, 14:31, 8 सितम्बर 2009
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमित कल्ला }} <poem> दृग रमता है रमता ही जाता है पाता ...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अमित कल्ला
}}
<poem>
दृग रमता है
रमता ही जाता है
पाता पर्वत
पानी पाताल का चखता
दृग रंग पकड़ता है
रेखाओं की संगत करता

दृग कबीर बन
अन्तरिक्ष के दिगांत विस्तार को
ताने-बाने में बुनता
दृग नानक सा फिरता है
हजारों हज़ार आँखों से देखता
हजारों हज़ार पगों से चलता है

दृग कोयल का काजल
तितली की बिंदिया
पंछी की परछाई
मखमल का जोबन चुराता

दृग शब्द पकड़ता है
इबारतों की इबादत कर
द्रश्य पार कर जाता
दृग रमता है
रमता ही जाता है ।


</poem>