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|रचनाकार=सोहनलाल द्विवेदी
}}
चल पङे पड़े जिधर दो डग, मग में<br>चल पङे पड़े कोटि पग उसी ओर;<br>पङ पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि<br>पङ पड़ गये कोटि दृग उसी ओर,<br><br>
उसके जिसके शिर पर निज धरा हाथ<br>
उसके शिर रक्षक कोटि हाथ,<br>
जिस पर निज मस्तक झुका दिया<br>
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!<br><br>
युग बढा बढ़ा तुम्हारी हंसी देख<br>
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,<br>
तुम अचल मेखला बन भू की<br>
तुम कालचक्र के रक्त सने<br>
दशनों को करके पकङ सुदृढपकड़ सुदृढ़,<br>
मानव को दानव के मुंह से<br>
ला रहे खींच बाहर बढ बढबढ़ बढ़;<br><br>
पिसती कराहती जगती के <br>
किसने आकर यह किया त्राण?<br><br>
दृढ चरण, सुद्र्ढ सुदढ़ करसंपुट से<br>
तुम कालचक्र की चाल रोक,<br>
नित महाकाल की छाती पर<br>
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