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हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे कहाँजहाँ
आता महाजन के यहाँ वहा वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस अर्चि आँच में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
और है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशी शशि सूर्य है हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है
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