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|रचनाकार=प्रेमशंकर रघुवंशी
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जिस बरगद की छाँव तले रहता था मेरा गाँव।
वह बरगद खुद घूम रहा अब नंगे नंगे पाँव।।
सब मिल अब ऊँची धरती पर रख लो ये बेड़ा
गूँजे कूक प्यार की घर-घर रहें न काँवकाँव।
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