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सिन्धु के अश्रु!<PREbr>धारा के खिन्न दिवस के दाह!<br>विदाई के अनिमेष नयन!<br>मौन उर में चिह्नित कर चाह<br>छोड़ अपना परिचित संसार-<br><br>
सिन्धु सुरभि का कारागार,<br>चले जाते हो सेवा-पथ पर,<br>तरु के अश्रुसुमन!<br>धारा के खिन्न दिवस के दाहसफल करके<br>मरीचिमाली का चारु चयन!<br>विदाई स्वर्ग के अनिमेष नयन!अभिलाषी हे वीर,<br>मौन उर में चिह्नित कर चाहसव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर<br>छोड़ अपना परिचित संसार-मुक्त विहार,<br><br>
सुरभि छाया में दुःख के अन्तःपुर का कारागारउद्घाचित द्वार<br>छोड़ बन्धुओ के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,<br>चले जाते हो सेवा-तुम अपने पथ पर,<br>तरु स्मृति के सुमन!गृह में रखकर<br>सफल करकेमरीचिमाली का चारु चयन!स्वर्ग अपनी सुधि के अभिलाषी हे वीर,सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीरअपना मुक्त विहार,सज्जित तार।<br><br>
छाया में दुःख के अन्तःपुर पूर्ण-मनोरथ! आए-<br>तुम आए;<br>रथ का उद्घाचित द्वारघर्घर नाद<br>छोड़ बन्धुओ के उत्सुक नयनों तुम्हारे आने का सच्चा प्यारसंवाद!<br>ऐ त्रिलोक जित्! इन्द्र धनुर्धर!<br>सुरबालाओं के सुख स्वागत।<br>विजय! विश्व में नवजीवन भर,<br>जाते हो तुम उतरो अपने पथ पर,रथ से भारत!<br>स्मृति के गृह उस अरण्य में रखकरबैठी प्रिया अधीर,<br>अपनी सुधि के सज्जित तार।कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,<br>मौन कुटीर।<br><br>
पूर्ण-मनोरथ! आए-तुम आए;रथ का घर्घर नादतुम्हारे आने का संवाद!ऐ त्रिलोक जित्! इन्द्र धनुर्धर!सुरबालाओं के सुख स्वागत।विजय! विश्व में नवजीवन भर,उतरो अपने रथ से भारत!उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ, मौन कुटीर। आज भेंट होगी-<br>हाँ, होगी निस्संदेह<br>आज सदा-सुख-छाया होगा कानन-गेह<br>आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमिक प्रवास,<br>आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास। </PREbr><br>