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बस एक काम यही / माधव कौशिक

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<poem>बस एक काम यही बार बार करता रहा।
भँवर के बीच से दरिया को पार करता रहा।

अजीब शख़्स था ख़ुद अलविदा कहा लेकिन,
हर एक शाम मेरा इंतज़ार करता रहा।

उसी की पीठ पर उभरे निशान ज़ख़्मों के,
जो हर लड़ाई के पीछे से वार करता रहा।

हवा ने छीन लिया अब तो धूप का जादू,
नहीं तो पेड़े भी भी पत्तों से प्यार करता रहा।

सुना है वक्त ने उसको बना दिया पत्थर,
जो रोज़ वक्त हो भी संगसार करता रहा।

</poem>
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