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<PRE>अनगिनित आ गये शरण में जन, जननि-<br>सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि!<br>स्नेह से पंक - उर हुए पंकज मधुर,<br>ऊर्ध्व - दृग गगन में देखते मुक्ति-मणि!<br>बीत रे गयी निशि, देश लख हँसी दिशि,<br>अखिल के कण्ठ की उठी आनन्द-ध्वनि।</PREbr>