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{{KKRachna
|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
}}
<poem>
जो मेरी सरगुज़िश्त सुनते हैं।
सर को दो-दो पहर यह धुनते हैं॥
कै़द में माजरा-ए-तनहाई।
आप कहते हैं, आप सुनते हैं॥
झूठे वादों का भी यकीन आ जाये।
कुछ वो इन तेवरों से कहते हैं॥
</poem>
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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
}}
<poem>
जो मेरी सरगुज़िश्त सुनते हैं।
सर को दो-दो पहर यह धुनते हैं॥
कै़द में माजरा-ए-तनहाई।
आप कहते हैं, आप सुनते हैं॥
झूठे वादों का भी यकीन आ जाये।
कुछ वो इन तेवरों से कहते हैं॥
</poem>