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Kavita Kosh से
मेरे चेहरे पे अनगिन मुखौटे चढ़े
वक्त के साथ जिनको बदलता रहा
मैंने भर्म भ्रम को हकीकत है माना सदा
मैं स्वयं अपने खुद को हूं छलता रहा
हाथ आईं नहीं मेरे उपलब्िधयांउपलब्धियां
बालू मुट्ठी से पल पल खिसकती रही
बीन के राग को छेड़ने के लिए
आहुति आहुति स्वप्न जलते रहे
दृष्टि के पाटलों पे न आए कभी
कामनाएं ऋचाआें ऋचाओं में उलझी रहीं
वेद आशा का आह्वान करते रहे
बीन के राग को छेड़ने के लिए
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही
रोशनी दीप के द्वार ठहरी रही
सत्य को सवर्दा भर्म में डाले रहे
मोमबत्ती जला ढूं़ढ़ता सूयर् ढूंढ़ता सूर्य था
पर अंधेरों में लिपटे उजाले रहे
प्यास सावन लिए था खड़ा व्योम में
साज़ ने गीत पर गुनगुनाया नहीं
बिजली बादल के घर में कलपती रही
बीन के राग को छेड़ने के लिए
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही
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