भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
}}
<poem>
मैं एक भटकता यायावर
अपने काँधों पर अपना घर
खाई खंदक राहों बाटों
जंगल पर्वत औ' घट घाटों
चलते–चलते पीछे छूटे
कितने युग कितने संवत्सर
 
यह यात्रा थी अंतस्तल में
ज्यों कस्तूरी मृग मरुथल में
अंतर में जलता लाक्षागृह
सिर पर सूरज का तेज़ प्रखर
 
अभिलाषाओं का नंदन वन
या गहन निराशा का कानन
बाहर–बाहर खजुराहो थे
थे गर्भगुहा में 'शिव शंकर'
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits