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बोलो न विक्रमार्क / अवतार एनगिल

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<poem>कहां गया वो
चील की जोगिया फलियों पर
मचलता चलता था जो?

कहां गया वो
फुहारों नहाई सिन्दूरी सांझ संग़
दीप-सा जलता था जो?
जाने क्या घटा
कि रास्तों पर उड़ते पत्ते
फिर से पेड़ों पर चढ़ने लगे
टहनियों पर उगने लगे

जाने क्या हुआ
कि उफनती शरारतें
मौन मछलियां बन
मथने लगी मन

जाने कब
गालों पर गिरती फुहार
रेन कोट ने ढक दी
बोलो न बिक्रमाअर्क !
क्यों चूक जाता है
सिन्दूरी साअंझ का जादू
क्यों बच जाता है
जलने
और जलकर चुकने का एहसास ?
क्यों चुभ जाता है सूरज
शूल-सा आँख में ?
और आंख पर हाथ रख
क्यों भटक जाते हैं हम
इन अनजान रास्तों की भूल-भुलैयों में ?
</poem>
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