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सही ढलान पर / माधव कौशिक

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<poem>सही ढलान पर होशोहवास लगते हैं
खुली किताब के पन्ने उदास लगते हैं।

न जाने कौन से शय खो गई अंधेरे में
सभी चिराग़ मुझे बदहवास लगते हैं।

कहीं-कहीं तो बदन को बदन ही ढकता है
अजीब शहर है सब बेलिबास लगते हैं।

तुम्हारे जाने का यूं तो असर नहीं कोई
हमारी आंख के सपने उदास लगते हैं

मैं उस मुकाम से आगे कभी तो जाऊँगा,
जहां पहुंचकर परिंदे कपास लगाते हैं।

कहां मिलेगा उजाला चिराग़ के नीचे
दिलों से दूर ही नज़रों के पास लगते हैं।
</poem>
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