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छल / रंजना भाटिया

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|रचनाकार=रंजना भाटिया
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}}
<poem>बीत गयी यूँ ही
ज़िंदगी की शाम भी
सुबह पर कभी..
उजाला दे ना पाई
शब बदली सहर में,
पर कभी मंज़िल की किरण
दिल तक ना पहुँच पाई
रंग बदले कितने ज़िंदगी ने
बन दर्पण ख़ुद को ही छला
खिल सका ना आंखो का सपना
कहने को प्यार बहुत मिला
इस छोर से उस छोर तक
देती रही बस प्यार की दुहाई
इन्द्रधनुष के रंग सी खिलती
वो प्रीत की डगर कभी ना पाई
छली गयी हर पल मानव प्रवंचना से
पर छल के भी ख़ुद को पा नही पाई !!</poem>
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