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दिलों के फासले / रंजना भाटिया

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{{KKRachna
|रचनाकार=रंजना भाटिया
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}}
<poem>यूँ ही जाने -अनजाने
महसूस होता है
रिश्तों की गर्मी
शीत की तरह
जम गई है ...
न जाने कहाँ गई
वह मिल बैठ कर
खाने की बातें
वह सोंधी सी
तेरे-मेरे ....
घर की सब्ज़ी
रोटी की महक सी
मीठी मुस्कान ....

अब तो रिश्ते भी
शादी में सजे
बुफे सिस्टम से
सजे-सजाये दिखते हैं
प्यार के दो मीठे बोल भी
जमी आइस क्रीम की तरह
धीरे से असर करते हैं
कहने वाले कहते हैं
कि घट रही धीरे-धीरे
अब हर जगह की दूरी
पर क्या आपको नही लगता
कि दिलो के फासले अब
और महंगे ..
और बढ़ते जा रहे हैं?
</poem>
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