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|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी

ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है
ज़रूरत आदमी को आदमी की

बसा-औक्रात<sup>1</sup> दिल से कह गयी है
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी

मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी

महब्बत में करें क्या हाल दिल का
ख़ुशी ही काम आती है न ग़म की

भरी महफ़ि‍ल में हर इक से बचा कर
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली

लड़कपन की अदा है जानलेवा
गज़ब ये छोकरी है हाथ-भर की

है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल<sup>2</sup> पर
चमन में मुस्कुहराहट कर कली की

रक़ीबे-ग़मज़दा<sup>3</sup> अब सब्र कर ले
कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी

1- कभी-कभी, 2- बहार के दिन, 3- दुखी प्रतिद्वन्द्वी

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