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18:30, 18 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्राण शर्मा
|संग्रह=सुराही / प्राण शर्मा
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<poem>
४१
पल दो पल आजा तुझको भी मैं बहला दूँ
मदिरा के छींटे तुझ पर भी मैं बरसा दूँ
ए साक़ी, तू रोज पिलाता है मय मुझको
आजा, तुझको भी थोड़ी मैं आज पिला दूँ
४२
व्यर्थ सुरा और मधुशाला को बतलाता है
पीने वालों में अवगुण भी दिखलाता है
साक़ी से क्या ख़ाक निभेगा उसका रिश्ता
जाहिद जब उसकी छाया से घबराता है
४३
मन ही मन में गीत सुरा का मैं गा बैठा
पीने की आशा में खुद को महका बैठा
जब साक़ी ने मदिरा का न्यौता भिजवाया
मैं मयखाने में सबसे पहले जा बैठा
४४
बात है जो मस्ती में जीवन को जीने की
बात है जो मदिरा से महके सीने की
बात कहाँ होगी वो चाँदी के प्याले में
बात है जो मिट्टी के प्याले में पीने की
४५
मदिरा का प्यासा मेरा मन चिल्लायेगा
खुद भी तड़पेगा तुझको भी तड़पायेगा
छीन नहीं मेरे हाथों से प्याला साक़ी
मेरा कोमल सा मन द्रोही हो जायेगा
४६
मैं मस्ती में पीऊँगा प्याले पर प्याला
चाहे रोज़ पुकारे लोग मुझे मतवाला
मेरे मन जल्दी ले चल मधुशाला मुझको
वहाँ तरसती है मेरे स्वागत को हाला
४६
लोग अगर विश्वास करेंगे मधुबाला में
लोग अगर सुख-चैन टटोलेंगे हाला में
जीवन के सारे मसले हल हो जाएँगे
लोग अगर आए-जाएँगे मधुशाला में
४७
रोम रोम में सुख पहुँचाती है मदमस्ती
कैसे-कैसे रंग जमाती है मदमस्ती
उसकी महिमा क्या बतलाऊँ मेरे यारो
पत्थर दिल में फूल खिलाती है मदमस्ती
४८
मदिरा की मस्ती में हर पल अपना जीवन महकयेगा
सबको अपने गले लगाकर झूमेगा और लहरायेगा
सुबह-सुबह चल पड़ने का उसका मक़सद जाने हैं हम
मदिरा का मतवाला घर से सीधा मयख़ाने जायेगा
४९
फागुन के मौसम में कोयल गीत नहीं तो क्या गायेगी
सावन के मौसम में बदली बरखा नहीं तो क्या लायेगी
नाहक ही तुम पाल रहे हो दुश्चिंताएँ अपने मन में
मदिरा पीने से तन-मन में मस्ती नहीं तो क्या आयेगी
५०
मधुशाला में यारो कोई फ़र्क़ नहीं गोरे-काले का
मधुशाला में ज़ोर नहीं कुछ चलता है जीजे-साले का
नाद यहाँ गूँजा करता है सर्वे भवन्तु सुखिनः हर पल
एक नज़र से सबको देखे धर्म सुरा पीने वाले का</poem>