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Kavita Kosh से
ऐसा कुछ भी नहीं जिंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए |
काँटों बच बीच उगी डाली पर कल
जागी थी जो कोमल चिंगारी ,
जब अंगुलियाँ ही बेदम हों तो
दोष भला फिर क्या सुराखों सूराखों का |
अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन !
ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए |'''</poem>