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06:30, 29 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
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<poem>
न यह कहो "तेरी तक़दीर का हूँ मैं मालिक।
बनो जो चाहो ख़ुदा के लिए, ख़ुदा न बनो॥
अगर है जुर्मे-मुहब्बत तो ख़ैर यूँ ही सही।
मगर तुम्हीं कहीं इस जुर्म की सज़ा न बनो॥
मिले भी कुछ तो है बेहतर तलब से इस्तग़ना<ref>सन्तोष</ref>।
बनो तो शाह बनो, ‘आरज़ू’! गदा<ref>भिक्षुक</ref> न बनो॥
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