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Kavita Kosh से
टूट पिसे, मरु-सिसका-कण के
रूप उड़े, कुछ घुआँघुवाँ-घुआँघुवाँ-सा अंबर में छाया!
तुम्हारा लौह चक्र आया!
अचरज से निज मुख फैलाया,
दंत-चिन्ह चिह्न केवल मानव का जब उस पर पाया!
तुम्हारा लौह चक्र आया!