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|संग्रह=निशा निमन्त्रण / हरिवंशराय बच्चन
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स्वप्न था मेरा भयंकर!
रात का-सा था अंधेरा,बादलों का था न डेरा,किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!स्वप्न था मेरा भयंकर!
क्षीण सरिता बह रही थी,
कूल से यह कह रही थी-
शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
रात का-सा था अंधेरा,<br>बादलों का था न डेरा,<br>किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!<br>स्वप्न था मेरा भयंकर!<br><br> क्षीण सरिता बह रही थी,<br>कूल से यह कह रही थी-<br>शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!<br>स्वप्न था मेरा भयंकर!<br><br> धार से कुछ फासले पर<br>सिर कफ़न की ओढ चादर<br>एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!<br>स्वप्न था मेरा भयंकर! <br><br/poem>
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