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|संग्रह=निशा निमन्त्रण / हरिवंशराय बच्चन
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था तुम्हें मैंने रुलाया!
स्नेह का वह कण तरल था,<br>मधु न था, न सुधा-गरल था,<br>एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!<br>था तुम्हें मैंने रुलाया!<br><br>
बूँद कल की आज सागर,<br>सोचता हूँ बैठ तट पर -<br>क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!<br>था तुम्हें मैंने रुलाया!<br><br><br/poem>