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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
}}
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हुस्ने-सीरत पर नज़र कर, हुस्ने-सूरत को न देख।
आदमी है नाम का गर ख़ू नहीं इन्सान की॥
ध्यान आता है कि टूटा था, ग़लमफ़हमी में अहद।
यादगार इक है तो धुंधली सी मगर किस शान की॥
</poem>
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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
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हुस्ने-सीरत पर नज़र कर, हुस्ने-सूरत को न देख।
आदमी है नाम का गर ख़ू नहीं इन्सान की॥
ध्यान आता है कि टूटा था, ग़लमफ़हमी में अहद।
यादगार इक है तो धुंधली सी मगर किस शान की॥
</poem>