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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=देव}}<poem>साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन सी सब नीर गयो ढरि।<br /> तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि॥<br />'देव' जियै मिलिबेहि की आस कि, आसहू पास अकास रह्यो भरि।<br />जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥<br /poem>