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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=तुलसीदास}}<poem>रघुपति! भक्ति करत कठिनाई।<br /> कहत सुगम करनी अपार, जानै सोई जेहि बनि आई॥<br />जो जेहिं कला कुसलता कहँ, सोई सुलभ सदा सुखकारी॥<br /> सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहै गज भारी॥<br /> ज्यो सर्करा मिले सिकता महँ, बल तैं न कोउ बिलगावै॥<br />अति रसज्ञ सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै॥<br /> सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवै निन्द्रा तजि जोगी॥<br />सोई हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्रवैत बियोगी॥<br />सोक, मोह, भय, हरष, दिवस, निसि, देस काल तहँ नाहीं॥<br />तुलसीदास यहि दसाहीन, संसय निर्मूल न जाहीं॥<br /poem>
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