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Kavita Kosh से
छबि वेला की नभ की ताराएँ निरुपमिता,
:::शत-नयन-दृष्टि
विस्मय में भर रही विविध-आलोक-सृष्टि।
भाव में हरा मैं, देख मन्द हँस दी बेला,
होली अस्फुट स्वर से—’यह जीवन का मेला
चमकता सुघर बाहरी वस्तुओं को लेकर,
त्यों त्यों आत्मा की निधि पावन बनती पत्थर।’
::बिकती जो कौड़ीमोल
यहां होगी कोई इस निर्जन में,
खोजो, यदि हो समतोल
वहाँ कोई, विश्व के नगर-घन में।
:::है वहां मान,
इसलिये बड़ा है एक, शेष छोटे अजान;
:::पर ज्ञान जहां,
देखना—बड़े, छोटे; आसमान, समान वहां:-
:::सब सुहृदवर्ग
उनकी आंखों की आभा से दिग्देश स्वर्ग।
बोला मैं—’यही सत्य, सुन्दर!
नाचतीं वृन्त पर तुम, ऊपर
होता जब उपल-प्रहार प्रखर!
:::अपनी कविता
तुम रहो एक मेरे उर में
अपनी छवि में शुचि संचरिता।
:::फिर उषःकाल
मैं गया टहलता हुआ, बेल की झुका डाल
::तोड़ता फूल कोई ब्राह्मण,
::’जाती हूँ मैं’, बोली बेला,
जीवन प्रिय के चरणों पर करने को अर्पण:-
:::देखती रही;
निस्स्वन, प्रभात की वायु बही।
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