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Kavita Kosh से
कितने वर्णों का आभार।
धरा-अधर धारण करते हैं,--
रँग के रागों के आकार
देख देख भावुक-जन-मन में
जगते कितने भाव उदार!
गरज रहे हैं मेघ, अशनिका
गूँजा घोर निनाद-प्रमाद,
स्वर्गधराव्यापी संगर का
छाया विकट कटक-उन्माद
अन्धकार उदगीरण करता
अन्धकार घन-घोर अपार
महाप्रलय की वायु सुनाती
श्वासों में अगणित हुंकार
इस पर चमक रही है रक्तिम
विद्युज्ज्वाला बारम्बार
फेनिल लहरें गरज चाहतीं
करना गिर-शिखरों को पार,
भीम-घोष-गम्भीर, अतल धँस
टलमल करती धरा अधीर,
अनल निकलता छेद भूमितल,
चूर हो रहे अचल-शरीर।
हैं सुहावने मन्दिर कितने
नील-सलिल-सर-वीचि-विलास-
वलयित कुवलय, खेल खिलानी
मलय वनज-वन-यौवन-हास।
बढ़ा रहा है अंगूरों का
हृदय-रुधिर प्याले का प्यार,
फेन-शुभ्र-सिर उठे बुलबुले
मन्द-मन्द करते गुंजार।
बजती है श्रुति-पथ में वीणा,
तारों की कोमल झंकार
ताल-ताल पर चली बढ़ाती
ललित वासना का संसार।
भावों में क्या जाने कितना
व्रज का प्रकट प्रेम उच्छ्वास,
आँसू ढ्लते, विरह-ताप से
तप्त गोपिकाओं के श्वास;
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