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ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी

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|रचनाकार=अटल बिहारी वाजपेयी
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<poem>
ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
ऊँचे पहाड़ पर:::जमती है सिर्फ बर्फ,<br>पेड़ नहीं लगते:::जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,<br>पौधे नहीं उगते:::मौत की तरह ठंडी होती है। :::खेलती, खिल-खिलाती नदी,<br>न घास ही जमती :::जिसका रूप धारण कर, :::अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।<br><br>
:::जमती है सिर्फ बर्फऐसी ऊँचाई,<br>:::जोजिसका परस पानी को पत्थर कर दे, कफ़न की तरह सफ़ेद औरऐसी ऊँचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे,<br>:::मौत अभिनंदन की तरह ठंडी होती है।<br>:::खेलती, खिल-खिलाती नदीअधिकारी है,<br>:::जिसका रूप धारण करआरोहियों के लिये आमंत्रण है,<br>:::अपने भाग्य उस पर बूंद-बूंद रोती है।<br><br>झंडे गाड़े जा सकते हैं,
ऐसी ऊँचाई:::किन्तु कोई गौरैया,<br>जिसका परस<br>पानी को पत्थर कर दे:::वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,<br>ऐसी ऊँचाई<br>जिसका दरस हीन भाव भर दे:::ना कोई थका-मांदा बटोही,<br>अभिनंदन की अधिकारी है,<br>आरोहियों के लिये आमंत्रण है,<br>उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br><br>:::उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।
:::किन्तु कोई गौरैया,<br>सच्चाई यह है कि :::वहाँ नीड़ केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं बना सकतीहोती,<br> :::ना कोई थकासबसे अलग-मांदा बटोहीथलग,<br>:::उसकी छाँव परिवेश से पृथक, अपनों से कटा-बँटा, शून्य में पलभर पलक ही झपका सकता अकेला खड़ा होना, पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है। ऊँचाई और गहराई में आकाश-पाताल की दूरी है।<br><br>
सच्चाई यह है कि<br>केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती:::जो जितना ऊँचा,<br><br>सबसे अलग-थलग:::उतना एकाकी होता है,<br>परिवेश से पृथक:::हर भार को स्वयं ढोता है,<br>अपनों से कटा-बँटा:::चेहरे पर मुस्कानें चिपका,<br>शून्य में अकेला खड़ा होना,<br>पहाड़ की महानता नहीं,<br>मजबूरी है।<br>ऊँचाई और गहराई में<br>आकाश-पाताल की दूरी :::मन ही मन रोता है।<br><br>
:::जो जितना ऊँचाज़रूरी यह है कि ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,<br>:::उतना एकाकी होता हैजिससे मनुष्य,<br>:::हर भार को स्वयं ढोता हैठूँठ सा खड़ा न रहे,<br>:::चेहरे पर मुस्कानें चिपकाऔरों से घुले-मिले, किसी को साथ ले,<br>:::मन ही मन रोता है।<br><br>किसी के संग चले।
ज़रूरी यह है कि<br>ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो:::भीड़ में खो जाना,<br>जिससे मनुष्य:::यादों में डूब जाना,<br>ठूँठ सा खड़ा न रहे:::स्वयं को भूल जाना,<br>औरों से घुले-मिले:::अस्तित्व को अर्थ,<br>किसी :::जीवन को साथ ले,<br>किसी के संग चले।<br><br>सुगंध देता है।
:::भीड़ में खो जानाधरती को बौनों की नहीं,<br>:::यादों में डूब जाना,<br>ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है। :::स्वयं को भूल जानाइतने ऊँचे कि आसमान छू लें,<br>:::अस्तित्व को अर्थनये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br>:::जीवन को सुगंध देता है।<br><br>
धरती को बौनों की :::किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br>ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।<br>इतने ऊँचे :::कि आसमान छू लेंपाँव तले दूब ही न जमे,<br>नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें:::कोई काँटा न चुभे,<br><br>:::कोई कली न खिले।
:::किन्तु इतने ऊँचे भी नहींन वसंत हो,<br>:::कि पाँव तले दूब ही जमेपतझड़,<br>:::कोई काँटा न चुभेहो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,<br>:::कोई कली न खिले।<br><br>मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
न वसंत हो, न पतझड़,<br>हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,<br>मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।<br><br> :::मेरे प्रभु!<br>:::मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br>:::ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,<br>:::इतनी रुखाई कभी मत देना। <br><br/poem>
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