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गृहकाज / सुमित्रानंदन पंत

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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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आज रहने हो यह गृहकाज
प्राण! रहने हो यह गृहकाज!
आज रहने हो यह गृहकाज<br>जाने कैसी वातास प्राण! रहने हो यह गृहकाजछोड़ती सौरभ-श्लभ उच्छ्वास, प्रिये, लालस-सालस वातास, जगा रोओं में सौ अभिलाष!<br><br>
आज जाने कैसी वातास<br>छोड़ती सौरभउर के स्तर-श्लभ उच्छ्वासस्तर में,<br>प्राण! प्रिये, लालससहज सौ-सालस वाताससौ स्मृतियाँ सुकुमार,<br>जगा रोओं दृगों में सौ अभिलाषमधुर स्वप्न संसार, मर्म में मदिर स्पृहा का भार!<br><br>
शिथिल, स्वप्निल पंखड़ियाँ खोल, आज अपलक कलिकाएँ बाल, गूँजता भूला भौरा डोल, सुमुखि, उर के स्तर-स्तर में, प्राणसुख से वाचाल!<br>सहज सौआज चंचल-सौ स्मृतियाँ सुकुमारचंचल मन प्राण,<br>दृगों में मधुर स्वप्न संसारआज रे,<br>मर्म में मदिर स्पृहा का शिथिल-शिथिल तन-भार!<br><br>,
शिथिल, स्वप्निल पंखड़ियाँ खोल,<br>आज अपलक कलिकाएँ बाल,<br>गूँजता भूला भौरा डोल,<br>सुमुखि, उर के सुख से वाचाल!<br>आज चंचल-चंचल मन प्राण,<br>आज रे, शिथिल-शिथिल तन-भार,<br><br> आज दो प्राणों का दिन-मान<br>आज संसार नही संसार!<br>आज क्या प्रिये सुहाती लाज!<br>आज रहने दो सब गृहकाज! <br><br/poem>
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