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वे आँखें / सुमित्रानंदन पंत

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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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अंधकार की गुहा सरीखी
 
उन आँखों से डरता है मन,
 
भरा दूर तक उनमें दारुन
 
दैन्‍य दुख का निरव रोदन!
 
वह स्‍वाधीन किसान रहा,
 
अभिमान भरा आँखों में इसका,
 
छोड़ उसे मँझधार आज
 
संसार बहा सदृश बहा खिसका!
 
लहराते वे खेत दृगों में
 
हुया बेदखल वह अब जिनसे,
 
हँसती थी उनके जीवन की
 
हरियाली जिनके तृन-तृन से!
 
आँखों में ही घुमा करता
 
वह उसकी आँखों का तारा,
 
कारकुनों की लाठी से जो
 
गया जावानी में ही मारा!
 
बिका दिया घर द्वार,
 
महाजन ने न ब्‍याज की कौड़ी छोड़ी,
 
रह-रह आँखों में चुभती वह
 
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
 
उजरी उसके सिवा किसे कब
 
पास दुहाने आने देती?
 
अह, आँखों में नचा करती
 
उजड़ गई जो सुख की खेती!
 
बिना दावा दर्पन के घरनी
 
स्‍वरग चली, आँखें आती भर,
 
देख-रेख के बिना दुधमुँही
 
बिटिया दो दिन बाद गई मर!
 
घर में विधवा रही पतोहू,
 
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
 
पकड़ मँगया कोतवाल नें,
 
डूब कुऍं में मरी एक दिन!
 
खैर, पैर की जूती, जोरू
 
न सही एक, दूसरी आती,
 
पर जवान लड़के की सुध कर
 
साँप लोटते, फटती छाती।
 
पिछले सुख की स्‍मृति आँखों में
 
क्षण भर एक चमक है लाती,
 
तुरत शून्‍य में गड़ वह चितवन
 
तीखी नोख सदृश बन जाती।
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