भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
मैं नहीं चाहता चिर सुख,
मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !
जग पीड़ित है अति दुख से<br>जग पीड़ित रे अति सुख से,<br>मानव जग में बँट जाएँ<br>दुख सुख से औ’ सुख दुख से !<br><br>
अविरत दुख है उत्पीड़न,<br>अविरत सुख भी उत्पीड़न,<br>दुख-सुख की निशा-दिवा में,<br>सोता-जगता जग-जीवन।<br><br>
यह साँझ-उषा का आँगन,<br>आलिंगन विरह-मिलन का;<br>चिर हास-अश्रुमय आनन<br>रे इस मानव-जीवन का ! <br><br>
(फरवरी,1932)
</poem>
