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|संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत
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मैं नहीं चाहता चिर सुख,
मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !
मैं नहीं चाहता चिर सुख,<br>मैं नहीं चाहता चिर दुख,<br>सुख दुख की खेल मिचौनी<br>खोले जीवन अपना मुख !<br><br> सुख-दुख के मधुर मिलन से<br>यह जीवन हो परिपूरण;<br>फिर घन में ओझल हो शशि,<br>फिर शशि से ओझल हो घन !<br><br>
जग पीड़ित है अति दुख से<br>जग पीड़ित रे अति सुख से,<br>मानव जग में बँट जाएँ<br>दुख सुख से औ’ सुख दुख से !<br><br>
अविरत दुख है उत्पीड़न,<br>अविरत सुख भी उत्पीड़न,<br>दुख-सुख की निशा-दिवा में,<br>सोता-जगता जग-जीवन।<br><br>
यह साँझ-उषा का आँगन,<br>आलिंगन विरह-मिलन का;<br>चिर हास-अश्रुमय आनन<br>रे इस मानव-जीवन का ! <br><br>
(फरवरी,1932)
</poem>
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