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दरबार / देव

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{{KKRachna
|रचनाकार=देव
}}<poem>साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूडिबे को काहू कर्म न बाच्यो।
भेष न सूझयो, कह्यो समझयो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
'देव' तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो॥</poem>
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