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|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
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<poem>
सुन अर्जुन ! तीनहूँ लोक मांहीं,
जद्यपि मम कछु कर्त्तव्य नांहीं.
कछु नैकैहूँ नाहीं मोहे दुर्लभ,
तद्यपि मैं करम करहूँ सबहीं

यदि पार्थ! करम न मैं करिबौ,
व्यवहार जगत को कस हुइहै,
जग मोरे ही अनुसार करम कर,
करमन की विधि, गति जनिहैं

यदि करम नाहीं मैं पार्थ करुँ,
तौ भ्रष्ट जगत सगरौ हुइहै,
अथ हेतु वर्ण संकरता कौ,
सगरी ही प्रजा हर्ता कहिहैं

जस हे भारत! आसक्त मना ,
अज्ञानी, सकामी करम करैं.
तस ही ज्ञानी आसक्ति बिना,
बस, ज्ञान हेतु ही करम करैं

यही ज्ञानिन कौ कर्तव्य महा,
जिन करमन में आसक्ति घनी.
तिन करम सों नाहीं विरक्त करैं,
सत करमन मांहीं बनावें धनी

सब करम गुणन सों प्रकृति के,
ही यही जगती पर होवत हैं.
पर मूढ़ मना मोहित मानत,
मैं कर्ता मोसों होवत हैं

गुन करम विभाग के तत्वन कौ,
तत्वज्ञ ही जानें महाबाहो!
गुन सगरे गुणन माहीं बरतत.
अथ नैकहूँ नाहीं विमोहित हो

प्राकृतिक गुणन सों मोहित जन,
गुन करमन सों आसक्त नरे.
ज्ञानी जन मूढ़ विमूढ़न कौ,
नाहीं विचलित, न विरक्त करें

अथ अर्जुन! ध्यानानिष्ट मना,
सों करम करो पर करमन कौ,
आशा, ममता, संताप बिना.
ही सौप दे ब्रह्म के चरनन कौ

मति,शुद्ध,विमल,चित श्रद्धा मय,
सों युक्त जनान, सदा मोरे .
यहि मत अनुसार आचार-विचार,
तो करमन के छूतट फेरे

जिन मूढ़न दृष्टि विकार धरै,
करै मोरे मत बर्ताव नाहीं,
वे ज्ञान विमोहित चित्त जना
कल्यान भ्रष्ट जानो ताहीं

सब प्राणी प्रकृति के वश ही
सब करम करैं सों कहा वश है?
ज्ञानिहूँ प्रकृतिवश करम करै,
हठ धरम कौ नैकु नहीं वश है

इन्द्रिय, इन्द्रिय के भोगन में,
अथ राग द्वेष के योगन में.
नाहीं लिप्त, जो प्राणी सचेत रहै,
नाहीं आवत भोग प्रलोभन में

गुणहीन ही आपुनि धरम भल्यो,
गुणयुक्त धरम सों औरन के
आपुनि धरमन में मरण भल्यो,
भय देत धरम हैं औरन के

अर्जुन उवाच
हे कृष्ण! कहौ केहि सों प्रेरित,
बहु पापन करम करत प्रानी.
कैसे बिनु चाह के चाहे बिना,
अघ भाव हिया धारै प्राणी

काम समूल है पापन कौ ,
कबहूँ न अघात जो भोगन सों,
निष्पन्न जो होत रजोगुण सों ;
यही पाप को मूल है बैरन सों

जस धूम्र सों पावक, जेर सों गर्भ,
धूलि सों दरपन धूमिल है.
अज्ञान सों ज्ञान की वैसी गति;
तस काम सों ज्ञान भी धूमिल है

यही काम की आग ही हे अर्जुन!
है ज्ञानिन की अति बैरी बनी,
यही ज्ञान बिनासत ज्ञानिन कौ,
नाहीं होत शमित बल जाकी घनी

मन इन्द्रिय, बुद्धि ये सगरे,
ही काम निवास कहावत हैं,
यही ज्ञान कौ आच्छादित करिकै,
देही कौ मोह करावत हैं.

सदबुद्धि विनाशक काम बली,
कौ विनाश करौ, जो महा पापी,
इन्द्रिन वश मांहीं करौ अर्जुन,
बहु पाप समूल है संतापी

इन्द्रिन तौ होत बली अतिशय,
पर इन्द्रिन सों मन होत परे.
तासों अति बुद्धि होत परे,
बुद्धिं सों आतमा होत परे

यही आतमा बुद्धि सों होत परे,
जानी के मन वश माहीं करौ.
अस दुर्जय काम के रूप रिपु,
कौ मारि महाबाहो! उबरो
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