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रे मन / सोहनलाल द्विवेदी

24 bytes removed, 04:34, 17 अक्टूबर 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=सोहनलाल द्विवेदी
}} {{KKCatKavita}}<poem>प्रबल झंझावत में तू <br> बन अचल हिमवान रे मन। <br><br>
हो बनी गम्भीर रजनी,<br>सूझती हो न अवनी, <br> ढल न अस्ताचल अतल में <br> बन सुवर्ण विहान रे मन। <br><br>
उठ रही हो सिन्धु लहरी <br> हो न मिलती थाह गहरी <br> नील नीरधि का अकेला <br> बन सुभग जलयान रे मन। <br><br>
कमल कलियाँ संकुचित हो,<br>रश्मियाँ भी बिछलती हो,<br>तू तुषार गुहा गहन में <br> बन मधुप की तान रे मन। <br><br/poem>
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