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{{KKRachna
|रचनाकार=घनानंद
}}<poem>परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि-नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ।
घनआनँद जीवन दायक हौ कछू मेरियौ पीर हियें परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानहिं लै बरसौ॥</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=घनानंद
}}<poem>परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि-नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ।
घनआनँद जीवन दायक हौ कछू मेरियौ पीर हियें परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानहिं लै बरसौ॥</poem>